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पिछले 5 सालों में बिहार में गेहूं ख़रीद केंद्रों में 82 फीसदी की कमी, देश में 25 फीसदी की गिरावट

Gaurav Singh
Last updated: 10th April 2020 9:51 am
By Gaurav Singh
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5 Min Read
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द एचडी न्यूज डेस्क : कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण और पूरे देश में लागू लॉकडाउन के बीच कृषि जगत रबी फसलों की बिक्री को लेकर चिंतित है. कई राज्यों में अधिकतर फसल कट चुकी है और किसानों को उनके उत्पाद की ब्रिकी को लेकर सरकार से उचित घोषणा और प्रबंधन का इंतजार है.

जाहिर है कि खरीदी के दौरान इस महामारी से किसी भी तरह का खतरा उत्पन्न की संभावनाओं को खत्म करने के लिए केंद्र एवं राज्यों की खरीद एजेंसियों को काफी विकेंद्रीकृत तरीका अपनाना पड़ेगा, जैसे कि गांव स्तर पर या कुछ गांवों के समूह स्तर पर खरीद केंद्र स्थापित कर खरीदी करनी होगी. किसानों को लागत का उचित मूल्य दिलाने में खरीद केंद्र बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि आधिकारिक आंकड़े दर्शाते हैं कि केंद्र एवं राज्य सरकारें खरीद केंद्रों को स्थापित करने और उसके सही तरीके से संचालन में प्रभावी नहीं रही हैं.

आलम ये है कि साल 2015-16 से साल 2019-20 के बीच देश में गेहूं के खरीद केंद्र करीब 25 फीसदी घट गए हैं, जबकि इस दौरान कृषि उत्पादन काफी बढ़ा है. इस गिरावट की प्रमुख वजह बिहार राज्य रहा है. भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक साल 2015-16 में गेहूं की खरीदी के लिए बिहार में 9,035 खरीद केंद्र लगाए गए थे, जो कि 2019-20 में 82 फीसदी से ज्यादा की कमी के साथ घटकर सिर्फ 1,619 हो गए.

इस बीच राज्य में 2016-17 में 7,457 केंद्र, 2017-18 में 6598 केंद्र और 2018-19 में 7,000 खरीद केंद्र गेहूं की खरीदी के लिए लगाए गए थे. ऐसे केंद्रों की कमी के कारण बड़ी संख्या में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ नहीं मिल पाता है और इसके चलते बाजार में कृषि उत्पाद का मूल्य एमएसपी से काफी कम बना रहता है. राज्य में खरीद केंद्र में कमी का प्रभाव गेहूं की खरीदी की स्थिति पर साफ तौर से देखा जा सकता है. पिछले पांच सालों में बिहार में कुल उत्पादन का एक फीसदी भी गेहूं की खरीदी नहीं हुई है.

पिछले साल बिहार में कुल उत्पादन का सिर्फ 0.05 फीसदी की खरीदी हुई थी. इससे पहले रबी खरीदी वर्ष 2018-19 में गेहूं की मात्र 0.29 फीसदी खरीदी हुई, जबकि पिछले साल देश में कुल गेहूं उत्पादन में 5.8 फीसदी हिस्सा बिहार का था. भारत सरकार हर साल एक निश्चित समय के दौरान रबी और खरीफ की फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदती है. इस खाद्यान्न का केंद्र की खाद्य सुरक्षा योजना, मिड-डे मील, पोषण कार्यक्रम इत्यादि के तहत वितरण किया जाता है.

इसमें से एक स्तर तक बफर स्टॉक भी रखा जाता है जिसका इस्तेमाल कोरोना वायरस जैसे किसी आपदा के समय लोगों को भोजन मुहैया कराने के लिए किया जाता है. मुख्य रूप से दो तरीके से खरीदी की जाती है. पहला ये कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) अपनी और राज्य एजेंसियों के जरिये सेंट्रल पूल के लिए खाद्यान्न खरीदती है.

दूसरा, विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली (डीसीपी) है, जिसके तहत राज्य में खाद्यान्न की खरीद, भंडारण और वितरण राज्य सरकारें खुद ही करती हैं और राज्य में चल रही कल्याणकारी योजनाओं के लिए खाद्यान्न का आवंटन करने के बाद जितना सरप्लस बच जाता है, उसे एफसीआई के सेंट्रल पूल में भेज दिया जाता है. जब कभी राज्य के पास राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एक्ट के तहत जरूरी अनाज की कमी हो जाती है तो भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) अन्य राज्यों से खरीद कर इन जरूरतों को पूरा करता है.

इस समय देश के 17 राज्य डीसीपी के दायरे में हैं. बिहार ने 2013-14 के खरीफ सीजन से गेहूं और धान के लिए खरीद की विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली (डीसीपी) अपना ली थी, जिसके तहत राज्य में व्यापार मंडल और प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों (पैक्स) के जरिए खरीदी की जाती है.

हालांकि बिहार की स्थिति इतनी खराब रही है कि वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत बांटे जाने वाले अनाज तक के लिए भी गेहूं की खरीदी नहीं कर पाते हैं. बिहार में एफसीआई के महाप्रबंधक संदीप कुमार पांडेय ने कहा कि पिछले पांच-छह सालों में बिहार में गेहूं की खरीद लगभग निल (शून्य) है. राज्य में 80 फीसदी खाद्यान्न जरूरत को हम बाहर से खरीद कर पूरा करते हैं.

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