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बिहार में आसान नहीं होगा सीटों का बंटवारा, जानिए क्या है बड़ी वजह..

Gaurav Singh
Last updated: 28th July 2020 10:48 am
By Gaurav Singh
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7 Min Read
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बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होना बाकी है लेकिन चुनाव से पहले अधिकांश राजनीतिक दलों के दिमाग में 2015 की बात चल रही है. पांच साल पहले की बात किसी गठबंधन को लेकर नहीं बल्कि सीटों को लेकर है. और यही वजह कि महागठबंधन हो या एनडीए दोनों ही जगह सीटों का गणित बिना किसी विवाद और टकराव के सुलझ जाएगा इसकी संभावना कम है. ऐसा नहीं कि यह परेशानी किसी एक गठबंधन की है. मामला दोनों ही जगह एक जैसा ही है और वजह है 2015 चुनावों के लिए हुआ सीटों का बंटवारा और उसके नतीजे.

NDA में कौन लगाएगा अपनी महत्वाकांक्षा पर ब्रेक?

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को जबरदस्त जीत हासिल हुई थी. नीतीश कुमार को सीएम बनने की खुशी तो थी लेकिन कहीं न कहीं उनकी पार्टी को सीटों के लिहाज इस चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा था. बिहार की 243 सीटों में से 178 पर महागठबंधन की जीत हुई लेकिन इस जीत में जेडीयू से अधिक विधायक आरजेडी के जीते. इतना ही नहीं, चुनाव से पहले महागठबंधन में जब सीटें फाइनल हुईं उस वक्त भी नीतीश कुमार को समझौता करना पड़ा था. 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू 142 सीटों पर लड़ी थी और 2015 में महागठबंधन में जेडीयू 101सीटों पर चुनाव लड़ी. सीटों के लिहाज से देखा जाए तो 41 कम सीटों पर जेडीयू लड़ रही थी. 101 सीटों पर लड़कर जेडीयू के 71 विधायक जीते. 2010 के मुकाबले जेडीयू के 44 कम विधायक सदन पहुंचे.

इस बार जेडीयू की ओर से 122 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है और यह बात बीजेपी को तो कम लेकिन लोक जनशक्ति पार्टी एलजेपी को कहीं अधिक परेशान कर रही है. इसी का नतीजा है कि एलजेपी की ओर से पिछली बार से भी अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की बात की जा रही है. पार्टी की कमान संभाले चिराग पासवान किसी न किसी बहाने नीतीश सरकार पर निशाना भी साध रहे हैं और पहले से भी अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की बात की जा रही है. 2015 में एलजेपी के हिस्से एनडीए में 40 सीटें आई थीं.

भारतीय जनता पार्टी के सामने भी असमंजस की स्थिति है. 2010 के मुकाबले बीजेपी 2015 में अधिक सीटों पर तो लड़ी लेकिन उसको नुकसान उठाना पड़ा था. 2010 में जहां 101 सीटों पर लड़कर 91 सीटें हासिल हुईं. वहीं 2015 में 160 सीटों पर लड़कर भी बीजेपी के हिस्से 53 सीटें ही आईं. अधिक से अधिक उम्मीदवार जीतकर विधानसभा पहुंचें, बीजेपी के सामने इसकी चुनौती रहेगी. इसकी संभावना तभी अधिक रहेगी जब अधिक सीटों पर उसके उम्मीदवार होंगे. पिछले चुनाव में जहां कम वोटों से बीजेपी के उम्मीदवार हारे थे पार्टी की नजर उस पर भी है. बिहार की सियासत को करीब से देखने वाले यह बात तो मानते हैं कि जेडीयू और बीजेपी में बात तो बन जाएगी लेकिन एलजेपी का क्या. एनडीए के सभी दलों के दिमाग में 2015 का गणित घूम रहा है ऐसे में यह मामला इतनी जल्दी भी नहीं सुलझने वाला.

महागठबंधन में आखिर कब तक चलेगा वेट एंड वॉच?

महागठबंधन में सीटों के साथ ही साथ इस गठबंधन का चेहरा कौन होगा, इसको लेकर भी कई बार सवाल खड़े हो चुके हैं. हालांकि चुनाव जैसे- जैसे करीब आ रहा है तस्वीर साफ हो रही है कि चेहरा कोई और नहीं तेजस्वी ही होंगे. इस मोर्चे पर भले ही तेजस्वी राहत की सांस ले सकते हैं लेकिन सीटों का बंटवारा अभी भी उनके लिए सिरदर्द बना हुआ है. 2015 के चुनाव में कम सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद भी आरजेडी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. 101 सीटों पर लड़कर पार्टी के 80 विधायक विधानसभा पहुंचे. यह 2010 के मुकाबले काफी अधिक सीटें थीं. यही वजह है कि इस बार आरजेडी ने अपने इरादे जता दिए हैं और अधिक से अधिक सीटों पर लड़ने की तैयारी है. पार्टी नेताओं की मानें तो कम से कम 150 सीटों पर आरजेडी चुनाव लड़ेगी.

महागठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी इस वक्त कांग्रेस है. जो 2015 में महागठबंधन में रहते हुए 41 सीटों पर चुनाव लड़ी. यह चुनाव कांग्रेस के लिए खास रहा. 41 में से पार्टी के 27 विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे. वहीं कई सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही. इस बार 2015 को ही आधार बनाकर कांग्रेस की ओर से अधिक से अधिक सीटें मांगी जा रही हैं. हालांकि यहां महागठबंधन के साथियों को साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी उस पर भी है. राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी आरएलएसपी, विकासशील इंसान पार्टी वीआईपी और जीतन राम मांझी की पार्टी हम भी महागठबंधन के साथी हैं और माना जा रहा है कि वाम दल भी इसमें शामिल रहेंगे. महागठबंधन में जीतन राम मांझी की ओर से समन्वय समिति और महागठबंधन का नेता तय नहीं यह सब बातें कहीं जा रही हैं. मांझी की पार्टी 2015 में 20 सीटों और आरएलएसपी 23 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. आरजेडी की ओर से खुलकर कुछ भी नहीं कहा जा रहा है और ऐसा लग रहा है कि सभी वेट एंड वॉच की स्थिति में हैं.

आगामी चुनाव में एक बात तो तय है कि मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच ही होने वाला है. तीसरे मोर्चे की बात भले ही की जा रही हो लेकिन तीसरे मोर्चे का हश्र पूर्व के चुनाव में बिहार में सबने देखा है. दोनों ही गठबंधन में सीटों का अंक गणित आसानी से तो सुलझता नहीं दिख रहा. 2015 के बाद पांच साल भले ही बीत गए हैं लेकिन कहीं न कहीं सीटों की रणनीति पिछले चुनाव को ही आधार बनाकर बनाई जा रही है. साथ ही तीसरे मोर्चे का भविष्य भी काफी हद तक इन दोनों ही गठबंधन के टकराव पर निर्भर है.

संदीप सिंह की रिपोर्ट

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